Manmarziyaan

दिल की राहों में कबसे बैठी है

थाम कर कितनी गुस्ताखियाँ,

बेअदब ही लिखती जाती है

लफ्ज़ों में स्याही की मनमर्ज़ियाँ!

. . .

खामोशियों के कई सफ़र है

हर सफ़र बस एक डगर है,

बरिशों के मौसम में देखो

भीगना चाहती है बेताबियाँ।

हल्की-हल्की सी बढ़ रही है

साये में घुल के गल रही है,

अश्क़ों की बस यहीं इन्तेहा

निगाहों से बह जाती ये मनमर्ज़ियाँ!

. . .

ख़्वाबों की रातों में उड़ती आती है

ख़्वाबों को मिलती नहीं रज़ा,

तोड़ कर लम्हें रख लेती है करीब अपने

गुज़रे लम्हों की अर्ज़ियाँ।

करवटें बदलती है रात अँधेरे में

लौट के आती है वो तन्हाइयाँ,

आंखों में आँखे डाले जागती रहती है

बड़ी ज़िद्दी, बड़ी बेहया, ये मनमर्ज़ियाँ!

. . .

सफ़हे पलट कर छोड़ जाती है

सफ़हों पर बेरंग निशानियाँ,

सीने पर सिसकती है सारी रहमतें

लबों पर इतराती है कई सुर्खियाँ।

ज़िन्दगी की चौखट पर देखो

बिखरी है कितनी कहानियाँ,

हर कहानी में किरदार है पहला

ये शोर मचाती मनमर्ज़ियाँ!

. . .

दिल की राहों में कबसे बैठी है

थाम कर कितनी गुस्ताखियाँ,

बेअदब ही लिखती जाती है

लफ्ज़ों में स्याही की मनमर्ज़ियाँ!

. . .

– Sahil

(25th August, 2017)

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