Rate this book

Charitraheen (1989)

by Sharat Chandra Chattopadhyay(Favorite Author)
3.86 of 5 Votes: 1
languge
English
genre
publisher
Manoj Pocket Books
review 1: चरित्रहीन-शरत चन्द्र अभी चरित्रहीन खत्म किया... उपन्यास समाप्त कर सबसे पहला प्रश्न जो दिमाग में आया- आखिर संपूर्ण उपन्यास में "चरित्रहीन" कौन था? सतीश- जो स्वयं को सबसे अधम पुरुष मानता है ? सावित्री- विधवा ब्राह्मिन जिसे कुल से निकाल दिया गया? या किरणमयी - अपूर्व सुंदरी जो भूल से गलती कर बैठती है पर अंत म�... more�ं प्रायश्चित कर लेती है? या पढने वाला जो इसके पात्रों को चरित्रहीन समझता रहा."चरित्र" और "चरित्रहीन" की हमारे लिए क्या परिभाषा है? क्या शरत चन्द्र के ज़माने से लेकर अब तक वही परिभाषा चली आ रही है? क्या हमारे मूल्यों में ज़रा भी परिवर्तन नहीं हुआ? क्या यह ज़रूरी है की उस ज़माने में जो "चरित्रहीन" माना जाता था वह आज भी "चरित्रहीन" ही माना जाए? उपन्यास की एक पात्र किरणमयी द्वारा एक बहुत अच्छी बात उपन्यासकार ने कही है – “राह चलते जब कोई अँधा गड्डे में गिर जाता है तो लोग उसे उठाते है , सँभालते हैं. समाज द्वारा यह बात स्वीकृत है की प्रेम अँधा होता है - पर जब यह अँधा गड्डे में गिरता है तो लोग उसे संभालने के लिए नहीं आते बल्कि उसे और गिरा कर उस पर मिटटी तक डाल देते हैं. अगर अँधा गड्डे में गिरे तो समझ में आता है पर आँख वाला गिरे तो क्या उसे माफ़ किया जा सकता है?” शरत बाबु की दृष्टि में भी "चरित्रहीन" वह नहीं जो भूल से गड्डे में गिर जाए पर वह है जिसका लक्ष्य ही गड्डे के समान नीच हो - जिसकी नियत खराब हो.कहानी कई पात्रों को साथ लेकर चलती है,पर मुख्यतःदो अलग अलग समान्तर कथाएं चलती रहती है,सतीश और सावित्री की और किरणमयी और दिवाकर की.उपेन्द्र इन दो कहानियों के बीच के सेतु का काम करते हैं.इसकी कहानी चरित्र के भटकाव और प्रेम की तलाश की.शरत चन्द्र की कहानियां अक्सर नारी प्रधान रहती है,और ये उपन्यास भी अपवाद नही है.शुरुआत के कुछ समय कहानी तेज चलती है,और बीच में आते आते रफ़्तार खो देती है.किरणमयी का पात्र अंत तक स्पष्ट नही हुआ.कही तो वह एक विदुषी होती है,और कहीं वह एक चालबाज़ चरित्रहीन औरत.उसके वाद विवाद,कुछ लम्बे ज्ञान-वाणी जैसे बोझिल संवाद कहानी को नीरस कर देते हैं.पर अंत में कहानी गति पकडती है.पात्रों और घटनाओं का मर्म समझ में आने लगता है.सावित्री और सतीश का अनकहा प्रेम शरत चन्द्र की देवदास की याद दिला देता है.सच कहूँ,तो बीच में कभी कभी उपन्यास बीच में छोड़ देने का मन भी किया,पर अच्छा हुआ,कि नही छोड़ा.और हाँ,शायद कभी सतीश और सावित्री के किरदारों को पढने के लिए दोबारा भी पढूं.एक सम्पूर्ण उपन्यास बनाने के फेर में थोड़ी बोझिल हो गयी है.बाकी सब ठीक है.समय और धैर्य हो,तो आप इसे निश्चय की पसंद करेंगे.रेटिंग 3 आउट of 5
review 2: This book might be a revered creation a century ago when it was written, but today it is not at all relevant in any socio-political aspect. The first sign of a masterpiece is that it should not lose its relevance even after centuries. So I think this book lost a lot of point based on this criteria alone. Secondly the story, the character, the narration are all incoherent and jumbled up. A very poor book which had no impact on me, the moment I finished it (or even after that). less
Reviews (see all)
emileeory
One the best classic books. It helps a lot in understanding the mentality of the women.
Onedonut
i want to read this book............
Peseta
i want to read this story.
ESCERO
Loved it
Write review
Review will shown on site after approval.
(Review will shown on site after approval)