हम भारत का नक्शा देखकर गर्व से बोलते हैं कि ‘कश्मीर’ देश का सुनहरा ताज है! इतना ही नहीं, सदियों से हम कहते और मानते आ रहे हैं, ‘अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है….यहीं है…. यहीं है’। अब बेहद सच्चाई से खुद से कुछ सवाल कर लीजिए। क्या सुनहरे ताज रूपी कश्मीर का मूल्य, हम भारतवासी आज तक समझ पाए हैं? क्या बीते सालों में हमने जानने की कोशिश भी की है कि इस ‘खूबसूरत स्वर्ग’ में बसने वाले लोगों की जिंदगियों में कितनी खूबसूरती बची है? हम ‘अपने’ कश्मीर को कितना जानते हैं?
ईमानदारी से इन सवालों के जवाब सोचेंगे, तो आपके पास ‘नहीं’ कहने के अलावा और कुछ न होगा। दरअसल, किताबों में ‘देश का मस्तक’ कहलाने वाला कश्मीर, यूं ही नहीं आज भी सबसे ज्वलंत मुद्दा है। बीते दो दशकों से ज्यादा भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोगों ने कश्मीर में बहुत कुछ घटता देखा, या कहें कि इन घटनाओं को खबरों में पढ़ा। लेकिन, इस लम्बे वक्त में ‘कश्मीर’ ने अपने आप के लिए कुछ खास होता नहीं देखा।
1989, ये वो समय था जब कश्मीर घाटी में राजनीतिक और सामाजिक स्थितियां तेजी से बदलना शुरू हुईं। अब तक भारत सरकार द्वारा ‘खास राज्य’ का दर्जा संभाल रहे जम्मू-कश्मीर में केंद्र के प्रभाव से ही सभी तरह की राजनीतिक गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा था। लेकिन कुछ सालों से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और अन्य संगठनों द्वारा उठ रहीं आवाजें 1989 के बाद घाटी में और जोर से सुनाई देने लगीं। इन संगठनों का मानना था कि भारत सरकार कश्मीरियों के आधिकार और हक को नजरअंदाज कर, सिर्फ अपने आदेश थोप रही है।
केंद्र में बैठी सरकारों ने भी इन आवाजों को दबाने के तरीके निकालना शुरू किया। ‘जेकेएलएफ’ और ‘हिजबुल मुजाहिद्दीन’ जैसे बंदूक उठाने वालों को रोकने के लिए सेना की तैनाती की गई। वहीं, जिन्होंने शब्दों के जरिए सरकार की मुखालफत की, उन्हें या तो जेलों में डाला गया या फिर ‘अलगाववादियों’ का ठप्पा लगा कर साइडलाइन कर दिया गया। इसका असर ये हुआ कि कश्मीरियों को हालात के हल के रूप में या तो सेना की टुकड़ियां देखने को मिलीं या फिर उन राजनीतिक दलों की मनमानी देखने को, जिन्हें मुद्दों से मतलब न होकर, सिर्फ सत्ता का मोह था।
कश्मीर के नागरिकों के लिए शिक्षा, व्यापार, रोजगार, जैसी मूल जरूरतों की आजादी, वहीं की वहीं रुक गई। देश की आजादी के बाद से ही कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने वाले सियासतदानों ने असल मायने में उस क्षेत्र के लिए कभी कोई ठोस प्रशासनिक हल निकालने की कोशिश ही नहीं की। घाटी में एक ऐसा सामाजिक माहौल नहीं बनने दिया गया, जिसमें हर शख्स अपनी राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक आजादी को खुले तौर पर जी सके। जबकि भारत के किसी भी अन्य राज्य में रहने वाला नागरिक ऐसी हर आजादी का निर्वाहन करता आया है। सरकार की नीति द्वारा की गई सेना की तैनाती ने डर और भावशून्यता को कश्मीरियों की जिंदगी का हिस्सा बना दिया।
कश्मीर में जन्मे पूर्व पत्रकार और लेखक ‘बशारत पीर’ ने अपनी किताब ‘कर्फ़्यूड नाइट’ में ऐसी ही कई सामाजिक कहानियों का वर्णन किया है। वो बताते हैं कि कश्मीर में AFSPA कानून लागू होने के चलते सेना का वर्चस्व बढ़ा, जिसके चलते मिलिटेंट गुटों ने भी घाटी में अपनी गतिविधियां बढ़ा दीं। मिलिटेंट ग्रुप्स पर कार्रवाई करने के लिए भारतीय सेना ने घाटी के कई इलाकों में अपने कैंप बनाए। एक इमारत जिसमें कल तक स्कूल चला करता था वो रातों-रात खाली करवा कर कैंप में तबदील कर दी गई और ऐसा बड़े पैमाने पर हुआ। इसका नतीजा ये निकला कि स्कूलों की तादाद कम होने के चलते शिक्षा का गहरा अभाव होने लगा। अब आप देखिये कि जो बच्चे कल तक किताबों में सेना को अपने आदर्श के रूप में देखते थे, उसी सेना ने उनके स्कूल ही उनसे छीन लिए! परिणामस्वरूप ऐसे ही किशोर या युवक आसानी से भटकाव का शिकार होकर बंदूक उठाने लगे।
बशारत, किताब में लिखते हैं कि ऐसा सिर्फ स्कूलों के साथ ही नहीं हुआ, बल्कि घरों और सामाजिक स्थलों में भी यही हुआ। घरों में किसी भी समय घुसकर सेना का तलाशी लेना, शादी और अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों का अचानक होने वाले आर्मी एंकाउंटर के हत्थे चढ़ जाना, इन सभी चीजों ने कश्मीर की समाजिक स्थितियों को समय के साथ कमजोर बनाया। चाहे सरकार कांग्रेस की हो, बीजेपी की या फिर किसी भी अन्य राजनीतिक दल की, कोई पार्टी कश्मीर के इस कमजोर होते सामाजिक तानेबाने को सुधारती हुई नहीं नजर आई है।
जरा सोचिए उस बचपन को जिसने अपने घर की खिड़की से बाहर झांका तो उसे कर्फ्यू और सेना की गुजरती टुकड़ियों के अलावा और कुछ नहीं दिखा। क्या बचपन के ऐसे अनुभवों के साथ बड़े होने वाले युवकों को हम अपनी तरह तर्कपूर्ण का शिष्टाचार दिखाने वाला इंसान होने के बारे में सोच सकते हैं? इस सवाल का जवाब शायद हमारे पास न हो।
हां इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बंदूक या पत्थर हाथ में लेकर किसी ‘आजादी’ की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। लेकिन बंदूकधारी और पत्थरबाज बनाने वाले हालात की तो गहन निंदा होनी ही चाहिए। हर वर्ग या समाज के खास व्यवहार के पीछे कई बुनियादी कारण जुड़े होते हैं, जिन्हें विस्तृत रूप से बिना समझे आगे बढ़ना ही गलत है।
मशहूर फिल्ममेकर ‘विशाल भारद्वाज’ की फिल्म ‘हैदर’ का एक पात्र कहता है कि “इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है”। ये डायलॉग न सिर्फ कश्मीरी युवायों के संदर्भ में सटीक बैठता है बल्कि सेना और सरकार की कार्रवाई पर भी उचित सवाल उठाता है।
मौजूदा समय में कश्मीर के हालात बद से बदतर नजर आने लगे हैं। कथित आतंकी घटनाएं बदस्तूर जारी हैं, युवा बेरोजगार हैं तो जाहिर है गुस्से और प्रतिरोध का सबसे आसान टार्गेट बना कर सरकार के खिलाफ हिंसक झड़प के लिए उन्हें आगे खड़ा किया जा रहा है। इसके अलावा पाकिस्तान का लगातार दखल भारतीय सेना के गले की फांस बना हुआ है। इन हालात को कई तरीकों से समझा जा सकता है।
पहले की सरकारों की तरह ही मौजूदा केंद्र सरकार भी कोई ठोस राजनीतिक, सामाजिक या प्रशासनिक हल देने में अब तक विफल रही है। इसी के चलते क्षेत्रीय पार्टी कही जाने वाली पीडीपी के साथ बीजेपी का शामिल होना, कश्मीरी नागरिकों को काफी हद तक गवारा नहीं है। क्योंकि जब केंद्र किसी तरह के व्यापक हल की पहल करने में सफल नहीं हो रहा, तो लोग राज्य में उसके गठबंधन पर विश्वास कैसे कर लें?
आज बड़ी आसानी से कोई राजनेता या टीवी पर चेहरा चमकाने वाला शख्स, कश्मीरी हिंसकों को ‘मुंहतोड़ जवाब देने’ की बात कह देता है। लेकिन क्या कभी हमने सोचा है कि तमाम पत्थरबाजों को पैलेट गन से छलनी करके या फिर हर बंदूक उठाने वाले युवा को मौत के घाट उतारकर इस जटिल मसले का हल निकल जाएगा? क्या ऐसा कर देने से आसानी से कश्मीर देश की शान और कश्मीरी हमारे अपने कहलाने लगेंगे?
बिलकुल नहीं! जरा सोच कर देखिए कि जब हमारे देश के कानून में एक शरारती बच्चे को सुधारने के लिए उसे पीटा जाना अपराध है, तो ये बात बड़े स्वरूप में कश्मीर जैसे एक राज्य पर लागू क्यों नहीं हो सकती? यहां भी तो निष्कर्ष के तौर पर सिर्फ यातनाएं दी गईं, बजाए हालात के कारणों को समझने के।
कुछ दिनों पहले, कश्मीर से एक वीडियो जारी हुआ जिसमें कुछ युवक सेना के जवानों के साथ मारपीट कर रहे हैं। इस वीडियो को मीडिया ‘सैनिकों पर अत्याचार’ के रूप में दिखाता है। हालांकि इसमें भी इस बात को नहीं बताया जाता कि एक इंसान सैनिक के साथ मारपीट कर रहा है तो चार लोग उसे ऐसा करने से रोकते हुए भी दिख रहे हैं। बहरहाल, कुछ दिनों बाद भी एक और वीडियो आता है जिसमें एक युवक को सेना की गाड़ी पर बांधा जाता है. सेना की तरफ ये जवाब आता है कि उसने पत्थरबाजों से बचने के लिए ऐसा किया। निश्चित रूप से पहले वाले वीडियो पर देशवासी गुस्सा जाहिर करते हैं, तो दूसरे वीडियो की सिर्फ इसलिए प्रशंसा होती है क्योंकि वो पहले वाले के ‘मुंहतोड़ जवाब’ के रूप में आपको दिखाया जाता है।
जरा खुद से सोचिए कि हम कब से अपराध में सही-गलत का चुनाव करने लगे? ऐसा क्यों है कि मौलिक रूप से शर्मनाक दिखने वाली दोनों घटनाओं में से, हमें एक सही और एक गलत लग रही है? क्या हम सोशल मीडिया के इस दौर में ऐसी किसी निर्मित राय का शिकार हो गए हैं कि हमने मान लिया है कश्मीर की तरफ से होने वाली हर गतिविधी नाकारा है, फिर उसके पीछा कारण कुछ भी हो।
चलिए, हाल में कुछ दिनों में कश्मीर में बढ़ी इस ‘वीडियोबाजी’ को भी जरा समझ लेते हैं। ये बात साफ है कि मौजूदा केंद्र सरकार के ऐवज में, धर्म के कई कथित ठेकेदारों के हाथ अधिक खुल गए हैं। दादरी में अखलाक के साथ हुई घटना, गुजरात में दलितों के साथ गौहत्या के नाम पर हुए अत्याचार और राजस्थान में कथित रूप से गौरक्षकों द्वारा की निर्मम हत्या, इन सभी ने देश में भय का एक माहौल बनाया है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि ये डर का माहौल किसी खास धर्म या जाति को दूसरे के मुकाबले ऊंचा दिखाने की ओर इशारा करता है।
पिछले एक साल में भारत में इंटरनेट के फैलते दायरे के चलते कोई इंसान जानकारियों से अछूता नहीं है। इंटरनेट की सिर्फ बेहतर पहुंच ही नहीं, कम दामों में इसकी उपलब्धता ने भी इसे हर क्षेत्र तक पहुंचाया है।अब देश के बाकी राज्यों की तरह ही ये इंटरनेट कश्मीर में भी उसी रूप में सक्रिय है। धर्म और जाति के नाम पर हो रहीं तमाम घटनाएं घाटी के लोगों के बीच भी पहुंच रही हैं और खासकर युवाओं के बीच।
तो जो कश्मीरी पहले से निष्कर्षहीन सियासत की मार झेल रहे हैं, क्या ऐसी घटनाओं का उनके सामने आना, उन्हें और भयभीत या विचलित नहीं करेगा? क्या घाटी के परिवारों का ये डर सही नहीं कि अब धर्म और आस्था के नाम पर भी कुछ असामाजिक तत्व उन्हें परेशान कर सकते हैं? ऐसे में सवाल ये है कि कहीं कश्मीर के युवकों के बीच संघर्ष, प्रतिरोध और विरोध की बढ़ती घटनाएं उनके मन में घर कर रहे इसी डर का प्रतीक तो नहीं हैं?
मेरा मानना है कि एक आम भारतीय नागरिक होने के नाते कश्मीर को लेकर कोई भी राय बनाने से पहले, हमें खुद से कुछ सावल करने होंगे। वहां से आने वाली हर खबर या सूचना पर ये सोचना होगा कि क्या उसमें हर पक्ष की बात सम्मिलित है? क्या हम नए दौर के उस कश्मीर की समस्या को समझ रहे हैं, जिसमें बच्चों से लेकर युवाओं तक भारत की मुख्यधारा से जुड़कर विकास के सपने देखना चाहते हैं, लेकिन सियासी दांव-पेंच उन्हें रोक रहे हैं? हमें ये खुद से पूछना होगा कि दशकों से सेना के साय में व्यतीत हो रहा जीवन कैसे स्वतंत्र समाज का निर्माण कर सकता है? ये समझना होगा कि आम युवा की तरह हजारों सपने देखने वाले नौजवान कश्मीरी, क्या महज ‘मजे’के लिए किसी पर पत्थर फेंकने को अमादा हैं? सरकरों से लगातार ये सवाल करने होंगे कि विश्व मंचों पर जोर-जोर से कश्मीर राग अलापने के अलावा क्यों उनके पास अब तक इस मसले का कोई लोकतांत्रिक और प्रशासनिक हल नहीं है?
दुनिया के इस सबसे विवादित क्षेत्र के हालात सुधारने की तरफ सबसे बड़ी पहल यही है कि हम सोचने की दिशा बदल लें। दिल्ली से कश्मीर की ओर न देखकर, कश्मीर की नजर से दिल्ली की ओर देखें। ‘टेररिज्म और टूरिज्म’ के बीच का चुनाव करने की आसान सी नसीहत देने भर से ये मसला नहीं सुलझेगा! उन तमाम भ्रमित करने वाली दलीलों और संदेशों को सिरे से खारिज करना होगा जो कश्मीर के बेहतर भविष्य के बीच में रोड़ा बनाई जा रही हैं। तभी शायद ‘अमीनस्तो….अमीनस्तो…. अमीनस्तो’ वाले कश्मीर पर हमें गर्व होगा।
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