आखिर बेटी हो कर मैंने ऐसा क्या गुनाह किया ?

आज इस दुनिया में हम बहुत आधुनिक होते जा रहे हैं, परन्तु साथ ही साथ हमारे कुछ हरकते इस कदर नीच होती जा रही है कि समाज के एक बहुमूल्य वर्ग को हम ख़तम करने पर आ गए है। वो भी सिर्फ अपनी मान, मर्यादा, शर्म, बोझ और ना जाने क्या क्या तर्क दे कर खुद का बचाव करते है आज लोग।

बस ये उन सब की दास्तां है —

कल की उसकी खामोश चीख शांत भी नहीं हुई ,
और आज एक नई जान की कुर्बानी दे दी गई,
आखिर कब तक ये हश्र से गुजरते रहेंगे हम,
आवाज़ उची करनी भी आती है पर मर्यादा हमें अपनी ज्यादा प्यारी है ।

उम्र हुई की नहीं हाथों को सुनहरी कंगनों की बेडियो से बांध देना,
रसोई की चार दिवारी में कैद कर लेना,
सपनों पर सिंदूर का बोझ डाल देना, यही करते आए हो।
तो अब आखिर हक की बगावत कैसे हो ना?

नर्म स्वभाव को कमजोरी समझना आपकी भूल है,
और इस प्रहार की सेहन हमरी ।
पर अब इस साजिश का भी अंत होगा,
सबकी जुबां पर अब हमारा भी नाम होगा।

अब आंसुओ की जगह खून बेहती है,
चीखो की गूंज शांत सी हो गई है,
समाज के पर्दे ने अब तो अपनों को भी यू अंधा कर दिया है,
कि अब तो मदत की हाथ से भी ये रोम काप उठने लगा है।

आखिर किस बात की है ये बेरहम साझा,
बेटी हो कर मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया?
जान देकर भी जान ले लेते हो,
ऐसी घृणा आखिर हमसे क्यों करते हो?

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